ई-गवर्र्नेस के लिए जजों को कंप्यूटर ज्ञान जरूरीनई दिल्ली सुप्रीम कोर्ट ने जज बनने के लिए कंप्यूटर के बुनियादी ज्ञान की अनिवार्यता को सही ठहराया है। कोर्ट ने कहा कि अदालतों में बेहतर प्रबंधन के लिए भारतीय न्यायपालिका ई- गवर्नेंस लागू कर रही है। आने वाले समय में देश की सारी अदालतें कंप्यूटरीकृत होंगी। ऐसे में नियुक्त होने वाले नए जजों से कंप्यूटर का बुनियादी ज्ञान होने की उम्मीद की जाती है। बदलते परिदृश्य में नए जज की नियुक्ति के लिए कंप्यूटर के ज्ञान की अनिवार्यता की शर्त को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह बात न्यायमूर्ति मुकुन्दकम शर्मा व न्यायमूर्ति अनिल आर दवे की पीठ ने उत्तरांचल न्यायिक सेवा में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) की भर्ती में कंप्यूटर के बुनियादी ज्ञान की अनिवार्यता को चुनौती देने वाली विजेंद्र कुमार वर्मा की याचिका खारिज करते हुए अपने फैसले में कही है। कोर्ट ने कहा कि कंप्यूटर चलाने के बुनियादी ज्ञान की शर्त को हटाया या कम नहीं किया जा सकता। हालांकि कोर्ट ने विशेषज्ञ द्वारा कंप्यूटर ज्ञान की जांच के तरीके पर कोई भी टिप्पणीं करने से इंकार कर दिया। विजेंद्र कुमार वर्मा ने उत्तरांचल हाईकोर्ट से निराश होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी और भर्ती में कंप्यूटर के बुनियादी ज्ञान की अनिवार्यता के नियम को चुनौती दी थी। विजेंद्र का कहना था कि लिखित परीक्षा और साक्षात्कार में उसे कुल 576 अंक मिले थे, लेकिन उसका नाम अंतिम चयन सूची में नहीं आया जबकि मात्र 568 अंक पाने वाले को नौकरी में रख लिया गया। विजेंद्र का कहना था कि कंप्यूटर ज्ञान की अनिवार्यता की शर्त बाद में जोड़ी गयी। पीठ ने उनकी दलीलें नकारते हुए कहा कि उत्तरांचल न्यायिक सेवा नियम 2005 के नियमों के अनुसार भर्ती होती है। इसके नियम 8 में भर्ती के लिए योग्यता मानदंड दिए गए हैं। जिसके मुताबिक आवेदन करने वाले उम्मीदवार के पास कानून में स्नातक की डिग्री होनी चाहिए, उसे हिंदी व देवनागरी लिपि का अच्छा ज्ञान होना चाहिए और उसे कंप्यूटर चलाने का बुनियादी ज्ञान भी होना चाहिए। पीठ ने कहा कि 16 फरवरी 2006 को सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के 50 पदों पर भर्ती के लिए निकाले गए विज्ञापन में आवेदक के लिए जरूरी योग्यता के ये मानदंड स्पष्ट रूप से दिए गए थे। इसके अलावा उसे भेजे गए साक्षात्कार के बुलावा पत्र में भी कंप्यूटर के बुनियादी ज्ञान की अनिवार्यता की बात कही गयी थी और विशेषज्ञ द्वारा उसके कंप्यूटर ज्ञान की जांच की गयी थी ऐसे में याचिकाकर्ता यह नहीं कह सकता कि उसे कंप्यूटर के बुनियादी ज्ञान की शर्त की जानकारी नहीं थी। इस सबके आलावा पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसलों का हवाला देते हुए कहा है कि परीक्षा में भाग लेने वाला उम्मीदवार बाद में परीक्षा प्रक्रिया को चुनौती नहीं दे सकता।+++++++++++++++कोर्ट: रेप की शिकार का फिंगर टेस्ट बंद करें
29 Sep 2010, किसी महिला की सेक्स लाइफ के बारे में जानकर यह अंदाजा कैसे लगाया जा सकता है कि उसके साथ रेप हुआ है या नहीं! यह कहना है दिल्ली के एक ट्रायल कोर्ट का जिसके पास एक रेप केस की सुनवाई के दौरान पीड़ित के फिंगर टेस्ट (पीवी टेस्ट) की रिपोर्ट भी सब्मिट की गई है।
अदालत का कहना है कि रेप के किसी भी मामले में पीड़ित महिला के मेडिकल टेस्ट प्रोसेस के दौरान फिंगर टेस्ट भी किया जाना 'गैर जरूरी' और महिला के 'मानवाधिकारों का हनन' है। यहां बता दें कि फिंगर टेस्ट किसी महिला के यौनांग से जुड़ी एक प्रकार की मेडिकल जांच होती है जिसके जरिए उसके वर्जिन होने या न होने और सेक्शुअली ऐक्टिव रहने संबंधी कुछ संकेत मिलते हैं। देश भर के हाई कोर्ट रेप के मामलों में पीड़ित महिला की गरिमा बनाए रखने की अपील करते रहे हैं लेकिन तमाम विरोधों के बावजूद पीड़ित महिला को फिंगर टेस्ट जैसे शर्मिंदगी भरे टेस्ट का सामना करना पड़ता है। ट्रायल कोर्ट की अडिशनल सेशन्स जज कामिनी लौ ने एक ऐसे ही मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि फिगर टेस्ट का रेप केस से कोई संबंध नहीं है।
कोर्ट ने कहा, 'यह टेस्ट अपने आप में चिंता का विषय है। यौन शौषण और रेप के मामलों में डॉक्टर इस टेस्ट को नियमित तौर पर कर रहे हैं चाहें बलात्कार की शिकार बच्ची हो, अविवाहित लड़की हो या शादीशुदा महिला हो। उन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं है कि ऐसे टेस्ट्स को लेकर डॉक्टरों की प्रतिक्रिया अलग-अलग देखी गई है।'
अदालत ने यह बात एक नाबालिग बच्चे के रेप केस की सुनवाई के दौरान कही जिसे इस गैर जरूरी और शर्मिंदगी भरे टेस्ट से गुजरना पड़ा। अदालत ने जोर दे कर कहा कि इस तरह के टेस्ट से सेक्शुअल हरासमेंट और रेप संबंधी जांच आरोपी पर फोकस न हो कर पीड़ित पर फोकस हो जाती है। कोर्ट ने कहा कि रेप की पीड़ित को जिस शर्मिंदगी से कोर्ट कार्रवाई के दौरान गुजरना पड़ता है, उसकी 'अनुमति नहीं दी जा सकती।'
कोर्ट ने सवाल किया कि किसी महिला की सेक्स लाइफ के बारे में जानकर यह अंदाजा कैसे लगाया जा सकता है कि उसके साथ रेप हुआ है या नहीं! जज ने कहा, 'महिला के चरित्र संबंधी सबूत को कोर्ट में सबूत के तौर पर कोई जगह नहीं दी जाती है तो फिर पीवी टेस्ट को कैसे सबूत माना जा सकता है जिसके जरिए डॉक्टर केवल यही जान पाते हैं कि महिला सेक्शुअली ऐक्टिव रही है कि नहीं।'
कोर्ट ने दिल्ली के चीफ सेक्रेटरी, स्वास्थ्य निदेशालय और राष्ट्रीय महिला आयोग को इस बारे में जरूरी कदम उठाने का निर्देश दिया है। उक्त अफ़सरो को इस तरह से परेशान करने मे मजा आता है! कोई कदम आज तक नही उठाया गया!!सरकार अधिग्रहीत भूमि का चाहे जो करे: सुप्रीम कोर्ट
16 Aug 2010सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकार को किसी निजी जमीन का अधिग्रहण करने के बाद इसका इस्तेमाल किसी भी रूप में तय करने का अधिकार है और इस भूमि का पूर्व मालिक इस पर एतराज नहीं जता सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने एक हालिया फैसले में कहा है कि यदि प्राधिकरण एक रिहाइशी कॉलोनी के लिए किसी निजी जमीन का अधिग्रहण करता है और बाद में इसका इस्तेमाल किसी अन्य रूप में करता है, तो जमीन का मालिक इस बात का आग्रह नहीं कर सकता कि जमीन उसे वापस कर देनी चाहिए क्योंकि मूल उद्देश्य का पालन नहीं किया गया।
न्यायालय ने कहा, एक बार जब किसी जमीन का अधिग्रहण कर लिया जाता है, तब राज्य सभी रुकावटों से मुक्त हो जाता है। यह भूमि- मालिक की चिंता नहीं होनी चाहिए कि उसकी जमीन का इस्तेमाल किस रूप में किया जाता है और उस जमीन का इस्तेमाल पहले से तय किए गए उद्देश्य के लिए किया जा रहा है या किसी अन्य उद्देश्य के लिए। जज पी.सदाशिवम और बी.एस.चौहान की एक बेंच ने कहा कि जमीन के मालिक को सिर्फ मुआवजा पाने का हक है और वह किसी भी आधार पर जमीन की वापसी के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने सुलोचना चंद्रकांत गालांडे की अपील को खारिज करते हुए यह फैसला सुनाया। सुलोचना ने पुणे नगर परिवहन निगम के कर्मचारियों के आवास के लिए महाराष्ट्र सरकार द्वारा 1978 में अधिग्रहित की गई अपनी जमीन को वापस करने की मांग की थी।
गौरतलब कि निगम ने आवासीय कॉलोनी के लिए जमीन ली थी, लेकिन बाद में इसने उस स्थान पर एक बस डिपो बना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने सुलोचना की अपील को खारिज करते हुए कहा, जमीन एक बार राज्य के नाम पर कर दिए जाने के बाद उसे वापस नहीं पाया जा सकता। राज्य के हाथों में जमीन का हक आने के बाद उसके पास इसके उपयोग को बदलने का अधिकार है। नई दिल्ली।। २६ जुलाई २०१० सुप्रीम कोर्ट ने वकीलों को ऑफिशल कामकाज में ईमेल का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने को कहा है ताकि लंबे समय से लटकी पिटिशनों पर फौरन सुनवाई हो, खासकर कमर्शल मामलों में। कोर्ट ने कहा कि 50 फीसदी मामले सिर्फ इसलिए पेंडिंग हैं कि अर्जियां और दस्तावेजों की रजिस्ट्री केस लड़ रहे पक्षों को वक्त पर नहीं पहुंच पाती।
चीफ जस्टिस एस. एच. कपाड़िया की बेंच ने कहा कि पिटिशन, ऐफिडेविट और दूसरे कागजात दाखिल करते वक्त वकील ईमेल का यूज करें। इनकी सॉफ्ट कॉपी वे पेन ड्राइव या सीडी के जरिए सेव करें और केस से जुड़े पक्षों को मेल करें। इस दौरान कोर्ट में अटॉर्नी जनरल जी. ई. वाहनवती भी मौजूद थे। उन्होंने इस फैसले पर खुशी जताते हुए कहा कि कैबिनेट सेक्रेटरी सभी सरकारी विभागों के अफसरों की ईमेल आईडी दो हफ्ते के अंदर भिजवा देगी। आजतक उ०प्र० मे इस आदेश का पता नही है!एनजीओ प्रज्ज्वला, गुड़िया, संलाप और सार्थक--वेश्यावृत्ति और सेक्स टूरिजम को कानूनी रूप देने की कोशिशों का विरोध किया।
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सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा है कि वह सेक्स टूरिजम पर सख्ती से लगाम कसे। कोर्ट ने बच्चों से सेक्स करने वाले या उन्हें वेश्यावृत्ति में धकेलने वाले लोगों के खिलाफ बलात्कार के आरोप में मुकदमे दर्ज कराने को भी कहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रह्माण्यम को यह निर्देश दिया। याचिका पर चार एनजीओ की तरफ से पेश हुईं एडवोकेट अपर्णा भट्ट ने कहा कि चाइल्ड प्रॉस्टिट्यूशन बलात्कार के बराबर अपराध है और यह समस्या विकराल हो चुकी है। उनकी बात से सहमति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह शॉकिंग है कि 70 पर्सेंट से ज्यादा सेक्स वर्कर बच्चे हैं। हम चाहते हैं कि सरकार बाल वेश्यावृत्ति और सेक्स टूरिजम की समस्या पर लगाम कसने के लिए फूलप्रूफ उपाय पेश करे।
जस्टिस दलवीर भंडारी और जस्टिस ए. के. पटनायक की बेंच ने कहा कि अगर लड़की की उम्र 18 साल से कम है और उसके साथ सेक्स किया जाता है तो यह साफ तौर पर रेप का मामला है। अगर आप आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार) के तहत मामला दर्ज करवाते हो तो उन्हें (आरोपी) जिंदगी भर के लिए सबक मिल जाएगा। लेकिन प्रॉब्लम यह है कि आप ऐसा करते नहीं हो। बड़ी समस्याओं से प्राथमिकता के आधार पर निपटना होगा।
बेंच ने कहा कि यह समस्या बहुत ज्यादा गंभीर है। सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता बच्चों का अवैध व्यापार रोकना होना चाहिए। सेक्स टूरिजम पर रोक लगनी चाहिए। सभ्य समाज में इसकी कोई जगह नहीं है। आपको अपनी मशीनरी मजबूत करनी होगी। ज्यादा जोर इस बात पर हो कि आप कैसे इस समस्या को हल करेंगे और आपके पास सिस्टम क्या है। जमीनी हकीकत तो ऐसी है कि इस तरह के बच्चों के परिजन भी सामाजिक दबाव में उन्हें स्वीकार में हिचकते हैं।
कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल से कहा कि मशीनी सिस्टम के जरिए यह समस्या दूर नहीं की जा सकती। इसके लिए विभिन्न सरकारी एजेंसियों और एनजीओ के बीच प्रभावी तालमेल की जरूरत है। हमारी असली समस्या अमल करने की है, जिसका अभाव होता है। एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने की स्टेज खत्म हो चुकी है। सरकार की विस्तृत आउटलाइन देखने के बाद हम ऐसे निर्देश देंगे, जो न्यायिक व्यवस्था में कारगर हों और लागू किए जा सकें। एक ऐसी स्पेशल एनफोर्समेंट एजेंसी की जरूरत है, जो ज्यादा भरोसे के साथ काम कर सके। बेंच ने कहा कि उन्हें सिर्फ वेश्यालयों से निकालकर सड़क पर छोड़ देने से समस्या हल नहीं होगी। फायदा तभी होगा जब उनका सही तरीके से पुनर्वास किया जाए, जो उनका अधिकार भी है।
इससे पहले, चार एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके वेश्यावृत्ति को कानूनी रूप देने की कोशिशों का विरोध किया। उन्होंने विभिन्न रिसर्च रिपोर्टों का हवाला देते हुए कहा कि कानूनी मंजूरी मिलने से इस अनैतिक काम को बढ़ावा ही मिलेगा। एनजीओ प्रज्ज्वला, गुड़िया, संलाप और सार्थक की ऐडवोकेट अपर्णा भट्ट ने कहा कि नीदरलैंड में वेश्यावृत्ति को कानूनी मंजूरी मिलने के बाद 1996 से 2001 के बीच यह कारोबार तीन गुना बढ़ गया है। ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत में इसे 1999 में कानूनी जामा पहनाया गया, उसके बाद इसमें 300 पर्सेंट की बढ़ोतरी हो गई। +++++++++++++++++++++++++करप्शन को लीगल क्यों नहीं कर देती सरकारः सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी महकमों खासतौर पर इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स और एक्साइज डिपार्टमेंट मे बढ़ते भ्रष्टाचार पर चिंता जताते हुए कहा है कि कुछ भी बिना पैसे के नहीं होता। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस टी.एस. ठाकुर की बेंच ने कहा, ' यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में भ्रष्टाचार पर कोई कंट्रोल नहीं है। खासतौर पर इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स और एक्साइज डिपार्टमेंट में काफी भ्रष्टाचार व्याप्त है।
पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में इनकम टैक्स इंस्पेक्टर मोहनलाल शर्मा को बरी किए जाने को चुनौती देते हुए सीबीआई की याचिका को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह बात कही। अडिशनल सॉलीसिटर जनरल पी.पी. मल्होत्रा ने सीबीआई की तरफ से कहा कि निचली अदालत ने शर्मा को एक व्यक्ति से 10 हजार रुपये मांगने और लेने का दोषी पाया था, इसके बावजूद हाई कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। निचली अदालत ने शर्मा को एक साल कैद की सजा सुनाई थी।
बेंच ने व्यंग्यात्मक शैली में कहा, 'सरकार भ्रष्टाचार को वैध क्यों नहीं कर देती? हर मामले में एक राशि निश्चित कर दी जाए। जैसे कोई व्यक्ति मामले को निपटाना चाहता है तो उसे ढाई हजार रुपये मांगे जा सकते हैं। इस तरह से हर आदमी को पता चल लाएगा कि उसे कितनी रिश्वत देनी है। अधिकारी को मोलभाव करने की जरूरत नहीं है और लोगों को भी पहले से ही पता होगा कि कि उन्हें बिना किसी फिक्र के क्या देना है।'
बेंच ने व्यंग्यात्म लहजे में ही आगे कहा, ' बेचारी सरकारी अधिकारी-उन्हें हम बढ़ती महंगाई के चलते जिम्मेदार भी नहीं ठहरा सकते।'
निजी तौर पर कोर्ट में दाखिल हुए शर्मा ने आरोपों से इनकार करते हुए कहा कि वह निदोर्ष हैं और उन्हें गलत तरह से फंसाया गया है। हालांकि बेंच इस दलील से प्रभावित नहीं दिखी और कहा कि खासतौर पर इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स और एक्साइज डिपार्टमेंट में काफी भ्रष्टाचार व्याप्त है।
बेंच ने देश में भ्रष्टाचार को वैध करने संबंधी अपनी टिप्पणी पर वरिष्ठ वकील केके वेणुगोपाल से भी विचार रखने की बात कही। हालांकि, वेणुगोपाल ने कहा कि बेहतर होगा कि देश के हर स्कूल में अच्छे नैतिक मूल्य सिखाए जाएं ताकि भविष्य की पीढ़ी भ्रष्टाचार की समस्या से मुक्त हो सके।
पीठ ने चैक बाउंस के एक अलग मामले में भी आरोपी की तरफ से पेश हुए वेणुगोपाल पर निशाना साधा। जस्टिस काटजू ने कहा, 'वेणुगोपाल, हम आपके लेवल के वकील से इस तरह के लोगों के लिए मामला लड़ने की अपेक्षा नहीं करते। महात्मा गांधी भी एक वकील थे लेकिन इस तरह के लोगों के लिए नहीं लड़े।' इस पर वेणुगोपाल ने पहले तो कहा, ' माई लॉर्ड इस स्थिति में मेरे अधिकतर मुवक्किल हाथ से निकल जाएंगे।' इसके बाद अदालत कक्ष में ठहाके गूंजने लगे। बाद में उन्होंने कहा कि वह भविष्य में अदालत के इस सुझाव को निश्चित तौर पर ध्यान में रखेंगे। ++++++++++++++++++++++++++++++++लिव-इन - कॉन्ट्रैक्ट होता है जिसमें प्रत्येक दिन रिन्यूअल होता है नई दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहते हुए अगर एक पक्ष रिश्ते से बाहर आ जाए तो दूसरा बेवफाई की शिकायत नहीं कर सकता। हाई कोर्ट ने कहा कि ये रिश्ते कैजुअल होते हैं और किसी डोर से बंधे नहीं होते और न ही इन रिलेशन में रहने वालों के बीच कोई कानूनी बंधन होता है। महिला ने याचिकाकर्ता के खिलाफ छेड़छाड़ और धमकी का आरोप लगाया था। याचिकाकर्ता ने एफआईआर कैंसल करने की गुहार लगाई थी। जस्टिस शिव नारायण ढींगड़ा ने उक्त टिप्पणी करते हुए एफआईआर कैंसल कर दी।
हाई कोर्ट ने कहा कि जो लोग लिव इन रिलेशन में रहना पसंद करते हैं वे अनैतिकता और व्यभिचार की शिकायत नहीं कर सकते क्योंकि किसी विवाहित पुरुष और अविवाहित महिला या विवाहित महिला एवं गैर शादीशुदा शख्स के बीच भी इस तरह के रिश्तों का पता चला है। अदालत ने लंदन के एक वकील द्वारा दाखिल एक याचिका पर यह फैसला सुनाया। याचिकाकर्ता के खिलाफ महिला ने क्रिमिनल कंप्लेंट की थी महिला उक्त शख्स के साथ लिव-इन में रह रही थी। याचिकाकर्ता ने महिला से शादी से इनकार किया था क्योंकि उनके पैरंट्स इस रिश्ते के खिलाफ थे। अदालत ने कहा कि साथ रहने का कॉन्ट्रैक्ट होता है जिसमें प्रत्येक दिन रिन्यूअल होता है और कोई भी एक पक्ष बिना दूसरे पक्ष की सहमति से इसे तोड़ सकता है।
इस मामले में याचिकाकर्ता ने हाई कोर्ट में अर्जी दाखिल कर उसके खिलाफ दर्ज केस रद्द करने की गुहार लगाई थी। याचिकाकर्ता के खिलाफ महिला ने 18 अक्टूबर, 2007 को आईजीआई एयरपोर्ट पर छेड़छाड़ और धमकी का केस दर्ज कराया था। आरोप था कि महिला और पुरुष दोनों लिव-इन रिलेशन में रह रहे थे। ये 5 साल साथ रहे। इस दौरान दोनों एक दूसरे पर निर्भर थे और पुरुष ने शादी का वादा किया और नहीं निभाया। वह लंदन जा रहा था इसी दौरान जब महिला उसे रोकने के लिए पहुंची तो उसके साथ बदतमीजी की और धमकी दी। इस मामले में की गई शिकायत पर आरोपी के खिलाफ केस दर्ज कर लिया गया।
याचिकाकर्ता का कहना था कि महिला ने गलत आरोप लगाए हैं। इस मामले की सुनवाई के बाद हाई कोर्ट के जस्टिस शिव नारायण ढींगड़ा ने कहा कि पुलिस ने प्रभाव में केस दर्ज कर लिया। पूरे मामले से लगता है कि उसकी मंशा सही नहीं है। वह पढ़ी - लिखी है और उसे इस बात की जानकारी की थी पुरुष शादीशुदा है और उसके बच्चे भी हैं बावजूद इसके वह लिव इन में रही। अदालत ने कहा कि इस तरह के रिलेशन दोनों पक्ष एक दूसरे की सहमति से इन्जॉय के लिए बनाते हैं। अदालत ने कहा कि इस मामले में मेडिकल रिपोर्ट और अन्य साक्ष्यों से साफ है कि एफआईआर नहीं बनती लिहाजा एफआईआर कैंसल की जाती है।
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