पुरुलिया के अयोध्या पहाड़ से अपहृत खुफिया विभाग के निरीक्षक पार्थ विश्वास व शिक्षक सौम्यजीत बसु के मामले में अमानवीयता की हद हो गयी। परिवार वालों ने राज्य सरकार से उन्हें बचाने की बार-बार गुहार लगाई थी। मुख्यमंत्री बुद्घदेव भट्टाचार्य ने राइटर्स में परिजनों को आश्वासन दिया था कि वह हरसंभव कोशिश करेंगे। इसी बीच राज्य प्रशासन के हलकों से खबर आयी कि दो कंकाल मिले हैं, और बताए जा रहे हैं कि ये अपहृत पार्थ व सौम्यजीत के हैं। सच से पर्दा उठाने के लिए सरकार ने डीएनए टेस्ट कराने का निर्णय किया है। जब तक रिपोर्ट नहीं आ जाती है, तब तक स्पष्ट रूप से कुछ भी कहना ठीक नहीं। पर, जिसने अपहरण कर हत्या की और जिन पर उन्हें बचाने की जिम्मेदारी थी, दोनों तरफ से अमानवीयता दिखी। घटना को अंजाम देने में शक की सुई माओवादियो की ओर है, लेकिन क्या इतनी संवेदनहीनता उचित है? इस पर सामूहिक रूप से चर्चा होनी चाहिए। पार्थ और सौम्यजीत का अपहरण पेशेगत जिम्मेदारियों को निभाने के दौरान हुआ। उनकी मौत से अपराधियों को क्या सफलता मिली होगी, वे तो वही बता सकते हैं, लेकिन कोई इतना बर्बर कैसे हो सकता है कि बिना सोचे-समझे परिवार की खुशियां छीन ले। घटना की खबर फैलते ही प्रशासन गंभीर रहता तो बचाने के लिए विधि-सम्मत कोशिश की जा सकती थी। दूसरी तरफ अपनी मांग मंगवाने के लिए जिस ढंग से माओवादी हिंसा का सहारा ले रहे हैं, उसे भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है। उस हिंसा में निर्दोष लोगों की हत्या हो रही है। इसके लिए सभी को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी कि इंसान होकर इतने बर्बर नहीं हो जाएं कि अमानवीयता की हद पार हो जाए। शर्म भी जब हमारी करतूतों पर शर्म महसूस करने लगे तो समझना चाहिए कि हम अमानवीय हो गए हैं। वर्तमान हालात कुछ ऐसे ही हैं। दोनों अपहृतों के कंकाल मिलने की बात पर परिजनों की हालत चिंताजनक है। वे डीएनए टेस्ट का इंतजार कर रहे हैं। यदि यह सच निकलता है तो पार्थ विश्वास व सौम्यजीत बसु के परिजनों को उनके घर लौटने की चाहत कभी पूरी नहीं होगी। ऐसे भी अपहरण के महीनों हो गए हैं, इसलिए आशंका तो थी ही कि उनकी हत्या कर दी गयी होगी? परिजनों ने न्याय के लिए तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी से भी उनके निवास पर जाकर गुहार लगायी थी। पिछले दिनों नक्सली समर्थक के रूप में चर्चित आंध्र के विद्रोही कवि बारबरा राव ने भी माओवादियों से शिक्षक को छोड़ देने की अपील की थी, लेकिन उनकी भी अपील पर अपराधियों का दिल नहीं पसीजा। जहां इतने कारण होंगे, तो पार्थ विश्वास की पत्नी द्वारा सरकार की तरफ से 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर उनके पति को दिए जाने वाले पुरस्कार को अस्वीकार करना, अंतहीन पीड़ा और दर्द को दर्शाता है।
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