नई दिल्ली,: कृषि उत्पादन बढ़ा कर महंगाई को काबू में करने का मंसूबा सरकार भले ही पाल रही हो मगर हकीकत यह है कि खेती लायक जमीन में लगातार कमी होती जा रही है। उद्योगों के विकास और आवासीय परियोजनाओं के लिए खेती की जमीन के उपयोग के चलते पिछले दो दशक में कृषि योग्य भूमि करीब दो फीसदी तक घट गई है। देश की बढ़ती आबादी और ज्यादातर लोगों की कृषि पर निर्भरता को देखते हुए इसे अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। कृषि मंत्री शरद पवार द्वारा हाल में संसद में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1988-89 में 18 करोड़ 51.42 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि थी, जो 2008-09 तक घटकर 18 करोड़ 23.85 लाख हेक्टेयर रह गई। इस तरह कृषि योग्य भूमि के रकबे में 27.6 लाख हेक्टेयर की कमी आई। पवार ने आर्थिक एवं सांख्यिकी निदेशालय (डीएसी) की रिपोर्ट के हवाले से कहा था कि पिछले दो दशक से हर साल कृषि योग्य भूमि घट रही है। हालांकि नई तकनीक और हाइब्रिड बीजों से जमीन की कमी होने के बावजूद 1988-89 से 2008-09 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन सालाना 16.99 करोड़ से बढ़कर 23.45 करोड़ टन हो गया। यह उत्पादन स्तर में 38 प्रतिशत की जबर्दस्त वृद्धि दर्शाता है। मगर आगे भी यह वृद्धि बरकरार रहेगी इसमें संदेह है क्योंकि जनसंख्या का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। कृषि योग्य भूमि की गिरावट को रोकने के लिए उठाए गए कदमों के बारे में पवार ने कहा कि संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार कृषि भूमि का विषय राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में है। कृषि योग्य भूमि को गैर कृषि कार्यो के लिए इस्तेमाल में लाने से रोकने की जिम्मेदारी राज्यों की है। उन्होंने बताया कि केंद्र सरकार ने किसानों के लिए राष्ट्रीय नीति और राष्ट्रीय पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन नीति वर्ष 2007 में तैयार की। इसमें भी कृषि भूमि का गैर-कृषि कार्यो के लिए इस्तेमाल रोकने की परिकल्पना की गई है। कृषि राज्य मंत्री अरुण यादव ने पिछले हफ्ते संसद को बताया कि 2001 की जनगणना के अनुसार देश के 40.22 करोड़ श्रमिकों में 58.2 फीसदी कृषि क्षेत्र पर आश्रित थे।
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