Sunday, February 27, 2011

बंजारों की संख्या दस करोड़ ,ना राशन कार्ड,ना ही मताधिकार 500 करोड़ खर्च

/WjYCwiतमाशा दिखाने वाले बंजारों (भीलों) की जिंदगी खुद ही एक तमाशा बन कर रह गई है। इनका न कोई वर्तमान है, न ही भविष्य। उन्हें दो जून की रोटी और चंद सिक्कों के लिए कोड़ों से अपने आपको तब तक पीटना पड़ता है जब तक उनके शरीर पर खून न उतर आए और देखने वाले की आंखें गीली न हो जाएं। सरकार की किसी भी योजना से इनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। योजनाएं कागजों तक ही सीमित रहती हैं और पैसा अधिकारियों की जेब के हवाले हो जाता है। देश के महानगरों में सड़कों पर, बाजारों में कहीं भी बंजारे तमाशा दिखाते या भीख मांगते मिल जाते हैं। एक महिला गीत गाते हुए ढोल बजाती है और उसके सामने एक पुरुष अपने आपको कोड़ों से लहूलुहान करता है। कोड़ों की आवाज जितनी तेज आती है, उतनी ही अधिक तालियां बजती हैं। किंतु इनकी चीखें न सरकार तक पहुंच पाती है और न ही इन तमाशबीनों तक। ये बंजारे अमूमन 40 से 70 रुपये पूरे दिन में कमा पाते हैं। इनका यह खेल चाबुक तक ही सीमित नहीं रहता। लोगों की जेब से पैसा निकालने के लिए बंजारे अपने हाथों में लोहे के सूएं तक घोंप लेते हैं। इन बंजारों तक विकास की रोशनी नहीं पहुंच पाई है। इस वर्ग में साक्षरता दर करीब-करीब शून्य है। इसका एक कारण तो यह है कि इनके बच्चे तीन साल की उम्र से ही भीख मांगना या करतब दिखाना शुरू कर देते हैं। और दूसरे, स्थायी आवास न होने के कारण ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। सहीं अथरें में इन्हें भारत का नागरिक ही नहीं समझा जाता है। जनजातियों की स्थिति के अध्ययन के लिए फरवरी 2006 में बने आयोग के अध्यक्ष बालकिशन रेनके के अनुसार केंद्र सरकार के पास इन्हें राहत देने के लिए कोई कार्ययोजना नहीं है, इसलिए इन्हें राज्यों के अधीन कर दिया गया है। पहली और तीसरी पंचवर्षीय योजना तक इनके लिए प्रावधान था लेकिन किसी कारणवश यह राशि खर्च नहीं हो सकी, तो इन्हें इस सूची से ही हटा लिया गया। काका कालेलकर आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था, कुछ जातियां अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़ी जातियों से भी पिछड़ी हैं। योजनाओं में उनके लिए अलग से प्रावधान होना चाहिए। मुक्तिधार संस्था के अनुसार बंजारों की संख्या दस करोड़ से भी ज्यादा है। फिर भी इन्हें आज तक ना राशन कार्ड मिला है और ना ही मताधिकार का हक। देश में अनुसूचित जाति जनजाति के लिए 500 करोड़ से भी अधिक धनराशि खर्च करने का प्रावधान है लेकिन इन्हें कुछ भी हासिल नहीं। बंजारा जाति की सामाजिक एवं आर्थिक दशा काफी पिछड़ी हुई है। पिछली प्रदेश सरकारों में इस जाति को पिछड़ी जाति में शामिल करने का आश्र्वासन दिया लेकिन मामला अटका ही रह गया। सरकारी -गैरसरकारी नौकरियों पर निगाह डाली जाए तो इनकी भागीदारी लगभग नहीं के बराबर है। बंजारा जाति की सामाजिक दशा सुधारने के लिए केंद्र व प्रदेश सरकारों से इन्हें अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग भी समय-समय पर उठती रही हैं, लेकिन इनके कल्याण के लिए किसी ने कोई जहमत नहीं उठाई। राजनीतिक आकाओं ने इसलिए भी कोई पहल नहीं की कि उनके वोट भी तो नहीं मिलते। भारत सरकार को चाहिए कि मूलभूत अधिकारों से भी वंचित बंजारों को विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए विशेष योजनाएं बनाए ताकि उन्हें भी औरों की तरह अपनी मुकम्मल जमीन मिल सके। आर्थिक सुधार के लिए विशेष पैकेज मिले, बच्चों के लिए नि:शुल्क कोचिंग और स्कूली व्यवस्था की जाए तभी शायद उनकी दशा सुधर सकती है।

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