Saturday, April 9, 2011

अवैध कब्जे

उच्च न्यायालय ने राजधानी रांची सहित राज्य के विभिन्न शहरों में सरकारी जमीन पर अवैध कब्जे से मुक्ति दिलाने का जो अभियान छेड़ रखा है, उसके दायरे में अब पैरवी-पैसे वालों का भी आ जाना नया हंगामा खड़ा कर सकता है। इससे शासन-प्रशासन पर भी आंच आने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। यह कमाल चंद जागरूक नागरिकों और उनके द्वारा दाखिल जनहित याचिकाओं का है, जो राज्य शासन के लिए बहुत बड़ा सबक है। सरकारी या रैयती जमीन पर कोई कब्जा न करे, यह दायित्व शासन-प्रशासन का है। यदि ऐसा हो भी गया तो उसे हटाना भी उसका ही कर्तव्य है। यह गंभीर चिंतन का विषय है कि ऐसे मामलों में अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। यह तो एक तरह से चपत ही है। पता नहीं प्रशासन समझ रहा है कि नहीं। अदालत का काम उसके पास न्याय-निर्णय के लिए गए मामलों पर विचार करना है लेकिन स्थिति ऐसी बन गई है कि मुख्य न्यायाधीश को स्वयं स्थल-निरीक्षण के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। यह विधायिका और कार्यपालिका की विफलता का परिचायक है। अदालतों को सक्रिय होना ही चाहिए किंतु प्रो-एक्टिव बन जाने की स्थिति तो शासन-प्रशासन ही पैदा कर रहा है। राजधानी को किसी भी राज्य/राष्ट्र का मुखड़ा कहा जाता है। बाहर से आने वालों लोगों की प्रथम दृष्टया धारणा राजधानी की व्यवस्था देखकर ही बनती है। इसके उलट तंग सड़कें, गलियों में गंदगी, बस अड्डों का लावारिस की तरह पड़ा रहना, सरकारी अस्पतालों में नारकीय स्थिति, अक्सर जाम आदि ही रांची की पहचान बन गई है। अदालत भी मौन धारण किए रहे, तब तो यह राज्य पिछड़ता ही चला जाएगा। सर्वोच्च शासन-प्रशासन की नाक के नीचे का यह हाल किसी भी संवेदनशील नागरिक को हरकत में आने को विवश करता है। यही कारण है कि भद्र लोक अदालत की प्रशंसा कर रहा है। राजनेताओं और राजनीतिक दलों की परेशानी का सबब भी यही है। जिन लोगों ने वर्षो से किसी जगह पर अड्डा जमा लिया और चाहे जिस प्रकार सामान्य नागरिक सुख-सुविधाएं भोगते रहे, हटाये जाने पर वे चिल्ल-पों तो मचाएंगे ही। अलबत्ता, अब रसूखवालों की ओर नजर फेर कर अदालत ने न्याय की तराजू के पलड़े बराबर कर दिया है। शासन-प्रशासन को मुक्त कराई गई जमीन का भविष्य तत्काल सोच लेना चाहिए अन्यथा वह किसी नई परेशानी के लिए तैयार रहे।

No comments:

Post a Comment