source-सुधांशु रंजन: वरिष्ठ टीवी पत्रकार
सूचना के अधिकार ने जनता को भ्रष्टाचार के बारे में सवाल उठाने का तो अधिकार दिया, किंतु उसमें कोई सजा का प्रावधान नहीं है। इसलिए लोकपाल जैसी सस्था की जरूरत है। अभी जो विधेयक सरकारी मसौदा है उसमें लोकपाल से कोई सीधी शिकायत नहीं कर सकता है, बल्कि लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति जो मामले उन्हें भेजेंगे वह उन्हीं की जाच करेगा। साथ ही उसकी भूमिका केवल अनुशंसा करने की होगी और उसे पुलिस की तरह प्राथमिकी दर्ज करने का भी अधिकार नहीं है। ऐसे कई मसले हैं जिन पर नागरिक समाज का विरोध है। 1969 से लोकपाल विधेयक लंबित है। गत 42 वषरें में कई दलों की सरकारें आईं, किंतु विधेयक पारित नहीं हो पाया। सर्वप्रथम 1809 में स्वीडन में 'ओम्बुड्समैन' नामक सस्था बनी, जिसे बाद में अन्य देशों ने भी अपनाया। कई मुल्कों में यह सस्था आज प्रभावी तरीके से काम कर रही है। कोई कारण नहीं है ऐसा मानने का कि भारत में यह सस्था काम नहीं करेगी। उसे अधिकार संपन्न बनाने की जरूरत है और यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उसकी नियुक्ति प्रक्रिया इतनी पारदर्शी हो कि वह जनता में विश्वास पैदा करे।
यह सतोष की बात है सोनिया गाधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने पूरे विधेयक पर पुनर्विचार की जरूरत बताई है। इतना तय है कि इस बड़े जनादोलन के बाद अब यह विधेयक अधिक दिनों तक लंबित नहीं रह पाएगा। उल्लेखनीय यह है कि यह आदोलन केवल सरकार के विरुद्ध नहीं है, बल्कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध है। इसलिए उन राजनेताओं को उल्टे पांव लौटना पड़ा जो समर्थन व्यक्त करने जंतर-मतर पहुंचे। सवाल उठता है कि सिविल सोसाइटी भीड़ कहां से इकट्ठा करेगी। भीड़ों की भी लोकतत्र में एक महती भूमिका है। भीड़ जमा कर सकते हैं वैसे ही राजनेता जिन्हें उल्टे पांव लौटने को विवश होना पडा। जयप्रकाश नारायण ने भी बिहार आदोलन में शुरू में राजनेताओं को अलग रखा। 8 अप्रैल को पटना में मौन जुलूस निकालने का प्रस्ताव था। कर्पूरी ठाकुर एव रामानद तिवारी भी सत्याग्रही बनना चाहते थे, किंतु उन्हें भी शामिल होने की अनुमति नहीं दी गई। झल्लाकर वे दोनों जेपी के पास पहुंचे, 'क्या हम लोग भी हिस्सा नहीं लेंगे?' जेपी ने कहा, 'आज नहीं'। बाद में उन्हें राजनीतिक दलों को साथ लेना पड़ा। महात्मा गाधी ने भी काग्रेस से तमाम मतभेदों के बावजूद उसके सगठन का इस्तेमाल अपने आदोलनों के लिए किया।
सूचना के अधिकार ने जनता को भ्रष्टाचार के बारे में सवाल उठाने का तो अधिकार दिया, किंतु उसमें कोई सजा का प्रावधान नहीं है। इसलिए लोकपाल जैसी सस्था की जरूरत है। अभी जो विधेयक सरकारी मसौदा है उसमें लोकपाल से कोई सीधी शिकायत नहीं कर सकता है, बल्कि लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति जो मामले उन्हें भेजेंगे वह उन्हीं की जाच करेगा। साथ ही उसकी भूमिका केवल अनुशंसा करने की होगी और उसे पुलिस की तरह प्राथमिकी दर्ज करने का भी अधिकार नहीं है। ऐसे कई मसले हैं जिन पर नागरिक समाज का विरोध है। 1969 से लोकपाल विधेयक लंबित है। गत 42 वषरें में कई दलों की सरकारें आईं, किंतु विधेयक पारित नहीं हो पाया। सर्वप्रथम 1809 में स्वीडन में 'ओम्बुड्समैन' नामक सस्था बनी, जिसे बाद में अन्य देशों ने भी अपनाया। कई मुल्कों में यह सस्था आज प्रभावी तरीके से काम कर रही है। कोई कारण नहीं है ऐसा मानने का कि भारत में यह सस्था काम नहीं करेगी। उसे अधिकार संपन्न बनाने की जरूरत है और यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उसकी नियुक्ति प्रक्रिया इतनी पारदर्शी हो कि वह जनता में विश्वास पैदा करे।
यह सतोष की बात है सोनिया गाधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने पूरे विधेयक पर पुनर्विचार की जरूरत बताई है। इतना तय है कि इस बड़े जनादोलन के बाद अब यह विधेयक अधिक दिनों तक लंबित नहीं रह पाएगा। उल्लेखनीय यह है कि यह आदोलन केवल सरकार के विरुद्ध नहीं है, बल्कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध है। इसलिए उन राजनेताओं को उल्टे पांव लौटना पड़ा जो समर्थन व्यक्त करने जंतर-मतर पहुंचे। सवाल उठता है कि सिविल सोसाइटी भीड़ कहां से इकट्ठा करेगी। भीड़ों की भी लोकतत्र में एक महती भूमिका है। भीड़ जमा कर सकते हैं वैसे ही राजनेता जिन्हें उल्टे पांव लौटने को विवश होना पडा। जयप्रकाश नारायण ने भी बिहार आदोलन में शुरू में राजनेताओं को अलग रखा। 8 अप्रैल को पटना में मौन जुलूस निकालने का प्रस्ताव था। कर्पूरी ठाकुर एव रामानद तिवारी भी सत्याग्रही बनना चाहते थे, किंतु उन्हें भी शामिल होने की अनुमति नहीं दी गई। झल्लाकर वे दोनों जेपी के पास पहुंचे, 'क्या हम लोग भी हिस्सा नहीं लेंगे?' जेपी ने कहा, 'आज नहीं'। बाद में उन्हें राजनीतिक दलों को साथ लेना पड़ा। महात्मा गाधी ने भी काग्रेस से तमाम मतभेदों के बावजूद उसके सगठन का इस्तेमाल अपने आदोलनों के लिए किया।
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