[भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की ओर से छेड़े गए आंदोलन की सफलता का निहितार्थ बता रहे हैं संजय गुप्त] अन्ना हजारे और उनके साथियों की ओर से जन लोकपाल विधेयक को लेकर दिल्ली में जंतर-मतर पर किए गए आमरण अनशन ने जिस तरह एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन का रूप ले लिया और उससे घबरा कर केंद्र सरकार ने महज चार दिन के अंदर उनकी सभी मांगें मान लीं उससे यह साफ हो गया कि अब सत्ता में बैठे लोग जनता की भावनाओं की परवाह तब तक नहीं करते जब तक इसके लिए उन्हें विवश न किया जाए। चूंकि अन्ना हजारे नैतिक बल से लैस थे और एक ऐसी मांग कर रहे थे जिसका समर्थन सारा देश कर रहा था इसलिए सरकार ने हथियार डाल दिए, अन्यथा सब जानते हैं कि सरकारें उन विरोध प्रदर्शनों पर भी ध्यान नहीं देतीं जिनके जरिये किसी संगठन अथवा समूह की ओर से जायज मांग की जा रही होती है। क्या यह मान लिया जाए कि अब सत्ता में बैठे लोगों को वही भाषा समझ में आती है जो अन्ना और उनके साथियों-समर्थकों ने इस्तेमाल की या फिर सत्ता हासिल करने के बाद वे खुद को जनता से दूर कर लेते हैं? क्या ऐसा तंत्र देश और समाज का भला कर सकता है जो लोक-तंत्र की परवाह न करे?
यदि केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के मामले में जन भावनाओं के प्रति तनिक भी संवेदनशील होती तो अन्ना को अनशन पर बैठने की जरूरत ही नहीं पड़ती। अन्ना और उनके साथी एक लंबे समय से सरकार की ओर से तैयार लोकपाल विधेयक के मसौदे की कमियां उजागर करने में लगे हुए थे। उन्होंने जन लोकपाल विधेयक तैयार कर सरकारी लोकपाल विधेयक की खामियां उजागर कीं, लेकिन सरकार ने गंभीरता का परिचय देने से इंकार किया। अन्ना ने अनशन शुरू करने के पहले केंद्र सरकार से बातचीत करने के प्रयास किए, लेकिन उन्हें ऐसे कोई संकेत नहीं दिए गए कि सरकार जन लोकपाल विधयेक को लेकर गंभीर है। आखिरकार उन्हें अनशन पर बैठने के लिए विवश होना पड़ा और फिर जो कुछ हुआ वह अब एक इतिहास बन गया है। एकजुट जनता की आवाज में कितनी ताकत होती है, यह देश ने भी देखा और दुनिया ने भी। अन्ना के आंदोलन के दौरान उनके समर्थक जितने संयमित और अनुशासित रहे वह एक मिसाल है। यह उल्लेखनीय है कि इस संयम और अनुशासन की तारीफ दिल्ली पुलिस भी कर रही है।
गांधी जी के नक्शे कदम पर चलकर अपने जीवन को ढालने वाले अन्ना पहले भी अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ चुके हैं। उन्होंने महाराष्ट्र में सूचना अधिकार को लेकर लंबा संघर्ष किया और सफलता भी हासिल की। पद्मभूषण अन्ना हजारे की ओर से सत्ता के सबसे बड़े केंद्र दिल्ली में पहली बार भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए आंदोलन की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आजादी के बाद पहली बार एक ऐसा कानून तैयार होने जा रहा है जिसमें आधी भागीदारी जनता की होगी। जो सरकार सिविल सोयाइटी के सदस्यों को लेकर लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाने के लिए तैयार नहीं थी वह जनता के दबाव में इस विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली समिति के गठन के लिए अधिसूचना जारी करने और साथ ही सिविल सोसाइटी के आधे सदस्यों को इस समिति में शामिल करने पर मजबूर हुई। वह शायद इसलिए भी अन्ना के समक्ष झुकी, क्योंकि सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन भी कुछ इसी तर्ज पर हुआ था। हालांकि सरकार और अन्ना में समझौते के बाद कुछ ऐसे स्वर भी उठ रहे हैं कि यह एक गलत नजीर है और कल को इसी तरह की अन्य मांगें उठ सकती हैं और उन्हें मानना असंभव होगा। ये सवाल एक हद तक सही हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अन्ना और सरकार के बीच हुआ समझौता असामान्य परिस्थितियों की देन है। ये परिस्थितियां इसलिए बनीं, क्योंकि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर केवल खोखले आश्वासन दिए जा रही थी। इन्हीं खोखले आश्वासनों से चिढ़ी जनता अन्ना के समर्थन में सड़कों पर उतर आई। जनता यह भली तरह देख रही थी कि किस तरह न केवल एक के बाद एक घोटाले होने दिए गए, बल्कि इनके लिए?जिम्मेदार लोगों को बचाने की चेष्टा की गई। यदि सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए थोड़ी भी प्रतिबद्ध होती तो इतना लचर और आधा-अधूरा लोकपाल विधेयक लेकर सामने नहीं आती। शायद यही कारण रहा कि जब अन्ना ने जन लोकपाल विधेयक को लेकर आंदोलन छेड़ा तो आम जनता सड़कों पर आ गई।
यह शुभ संकेत है कि देर से ही सही, कांग्रेस चेती और उसके चलते सरकार अन्ना हजारे से सुलह करने के लिए सक्रिय हुई। यदि स्वयं सोनिया गांधी अन्ना की मांगों के प्रति सहमति नहीं दिखातीं तो शायद सरकार पहले की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती। यह समझना कठिन है कि अन्ना के आंदोलन से जिस तरह सोनिया गांधी असहज और चिंतित नजर आईं वैसी चिंता सत्ता के सूत्र संभालने वाले लोगों में क्यों नहीं दिखी?
नि:संदेह अन्ना के आंदोलन ने एक ओर जहां समूचे देश को आंदोलित किया वहीं दूसरी ओर सत्ता तंत्र को हिला कर रख दिया, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई अभी शेष है। सबसे पहले तो यह देखना होगा कि लोकपाल विधेयक कब तक कानून का रूप लेता है और फिर यह कि वह कितना प्रभावी सिद्ध होता है? कमजोर सरकारी लोकपाल विधेयक के मुकाबले जो जन लोकपाल विधेयक तैयार किया गया उसके सभी बिंदुओं से सहमत होना कठिन है। यह लोकपाल कुछ ज्यादा ही अधिकार संपन्न दिखता है। आवश्यकता से अधिक अधिकार प्राप्त लोकपाल शक्ति का एक अलग केंद्र बन सकता है। उसकी शक्तियों के दुरुपयोग का भी खतरा है, क्योंकि जन लोकपाल विधेयक के मसौदे के अनुसार उसके पास पुलिस भी होगी और वह रपट भी दर्ज करा सकेगा। इन स्थितियों में किसी को फंसाने या बदनाम करने अथवा विकास के कार्यो को बाधित करने के लिए लोकपाल का अनुचित इस्तेमाल किया जा सकता है।
जन लोकपाल के अनुसार प्रधानमंत्री भी उसके दायरे में होगा। यह एक पेचीदा मसला है, जिसे पूरी संवेदनशीलता के साथ सुलझाना होगा, क्योंकि प्रधानमंत्री के पास बहुत से ऐसे मसले होते हैं जो देश की साख और सुरक्षा से जुड़े होते हैं। लोकपाल विधेयक चाहे जिस रूप में सामने आए, उसका श्रेय सरकार को कम अन्ना हजारे को अधिक जाएगा। उन्होंने एक प्रभावी और सक्षम लोकपाल के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया है, लेकिन यह मानकर नहीं चला जाना चाहिए कि केवल इस व्यवस्था के निर्माण से भ्रष्टाचार पर लगाम लग जाएगी। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बहुत कुछ करना होगा। एक ओर जहां चुनाव सुधार संबंधी उन मुद्दों पर ध्यान देना होगा जिनका उल्लेख अन्ना ने अनशन खत्म करने के दौरान दिए वहीं आम भारतीयों को अपनी जीवनचर्या में भ्रष्टाचार विरोधी मानसिकता अपनाने के लिए भी तैयार रहना होगा
यदि केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के मामले में जन भावनाओं के प्रति तनिक भी संवेदनशील होती तो अन्ना को अनशन पर बैठने की जरूरत ही नहीं पड़ती। अन्ना और उनके साथी एक लंबे समय से सरकार की ओर से तैयार लोकपाल विधेयक के मसौदे की कमियां उजागर करने में लगे हुए थे। उन्होंने जन लोकपाल विधेयक तैयार कर सरकारी लोकपाल विधेयक की खामियां उजागर कीं, लेकिन सरकार ने गंभीरता का परिचय देने से इंकार किया। अन्ना ने अनशन शुरू करने के पहले केंद्र सरकार से बातचीत करने के प्रयास किए, लेकिन उन्हें ऐसे कोई संकेत नहीं दिए गए कि सरकार जन लोकपाल विधयेक को लेकर गंभीर है। आखिरकार उन्हें अनशन पर बैठने के लिए विवश होना पड़ा और फिर जो कुछ हुआ वह अब एक इतिहास बन गया है। एकजुट जनता की आवाज में कितनी ताकत होती है, यह देश ने भी देखा और दुनिया ने भी। अन्ना के आंदोलन के दौरान उनके समर्थक जितने संयमित और अनुशासित रहे वह एक मिसाल है। यह उल्लेखनीय है कि इस संयम और अनुशासन की तारीफ दिल्ली पुलिस भी कर रही है।
गांधी जी के नक्शे कदम पर चलकर अपने जीवन को ढालने वाले अन्ना पहले भी अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ चुके हैं। उन्होंने महाराष्ट्र में सूचना अधिकार को लेकर लंबा संघर्ष किया और सफलता भी हासिल की। पद्मभूषण अन्ना हजारे की ओर से सत्ता के सबसे बड़े केंद्र दिल्ली में पहली बार भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए आंदोलन की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आजादी के बाद पहली बार एक ऐसा कानून तैयार होने जा रहा है जिसमें आधी भागीदारी जनता की होगी। जो सरकार सिविल सोयाइटी के सदस्यों को लेकर लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाने के लिए तैयार नहीं थी वह जनता के दबाव में इस विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली समिति के गठन के लिए अधिसूचना जारी करने और साथ ही सिविल सोसाइटी के आधे सदस्यों को इस समिति में शामिल करने पर मजबूर हुई। वह शायद इसलिए भी अन्ना के समक्ष झुकी, क्योंकि सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन भी कुछ इसी तर्ज पर हुआ था। हालांकि सरकार और अन्ना में समझौते के बाद कुछ ऐसे स्वर भी उठ रहे हैं कि यह एक गलत नजीर है और कल को इसी तरह की अन्य मांगें उठ सकती हैं और उन्हें मानना असंभव होगा। ये सवाल एक हद तक सही हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अन्ना और सरकार के बीच हुआ समझौता असामान्य परिस्थितियों की देन है। ये परिस्थितियां इसलिए बनीं, क्योंकि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर केवल खोखले आश्वासन दिए जा रही थी। इन्हीं खोखले आश्वासनों से चिढ़ी जनता अन्ना के समर्थन में सड़कों पर उतर आई। जनता यह भली तरह देख रही थी कि किस तरह न केवल एक के बाद एक घोटाले होने दिए गए, बल्कि इनके लिए?जिम्मेदार लोगों को बचाने की चेष्टा की गई। यदि सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए थोड़ी भी प्रतिबद्ध होती तो इतना लचर और आधा-अधूरा लोकपाल विधेयक लेकर सामने नहीं आती। शायद यही कारण रहा कि जब अन्ना ने जन लोकपाल विधेयक को लेकर आंदोलन छेड़ा तो आम जनता सड़कों पर आ गई।
यह शुभ संकेत है कि देर से ही सही, कांग्रेस चेती और उसके चलते सरकार अन्ना हजारे से सुलह करने के लिए सक्रिय हुई। यदि स्वयं सोनिया गांधी अन्ना की मांगों के प्रति सहमति नहीं दिखातीं तो शायद सरकार पहले की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती। यह समझना कठिन है कि अन्ना के आंदोलन से जिस तरह सोनिया गांधी असहज और चिंतित नजर आईं वैसी चिंता सत्ता के सूत्र संभालने वाले लोगों में क्यों नहीं दिखी?
नि:संदेह अन्ना के आंदोलन ने एक ओर जहां समूचे देश को आंदोलित किया वहीं दूसरी ओर सत्ता तंत्र को हिला कर रख दिया, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई अभी शेष है। सबसे पहले तो यह देखना होगा कि लोकपाल विधेयक कब तक कानून का रूप लेता है और फिर यह कि वह कितना प्रभावी सिद्ध होता है? कमजोर सरकारी लोकपाल विधेयक के मुकाबले जो जन लोकपाल विधेयक तैयार किया गया उसके सभी बिंदुओं से सहमत होना कठिन है। यह लोकपाल कुछ ज्यादा ही अधिकार संपन्न दिखता है। आवश्यकता से अधिक अधिकार प्राप्त लोकपाल शक्ति का एक अलग केंद्र बन सकता है। उसकी शक्तियों के दुरुपयोग का भी खतरा है, क्योंकि जन लोकपाल विधेयक के मसौदे के अनुसार उसके पास पुलिस भी होगी और वह रपट भी दर्ज करा सकेगा। इन स्थितियों में किसी को फंसाने या बदनाम करने अथवा विकास के कार्यो को बाधित करने के लिए लोकपाल का अनुचित इस्तेमाल किया जा सकता है।
जन लोकपाल के अनुसार प्रधानमंत्री भी उसके दायरे में होगा। यह एक पेचीदा मसला है, जिसे पूरी संवेदनशीलता के साथ सुलझाना होगा, क्योंकि प्रधानमंत्री के पास बहुत से ऐसे मसले होते हैं जो देश की साख और सुरक्षा से जुड़े होते हैं। लोकपाल विधेयक चाहे जिस रूप में सामने आए, उसका श्रेय सरकार को कम अन्ना हजारे को अधिक जाएगा। उन्होंने एक प्रभावी और सक्षम लोकपाल के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया है, लेकिन यह मानकर नहीं चला जाना चाहिए कि केवल इस व्यवस्था के निर्माण से भ्रष्टाचार पर लगाम लग जाएगी। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बहुत कुछ करना होगा। एक ओर जहां चुनाव सुधार संबंधी उन मुद्दों पर ध्यान देना होगा जिनका उल्लेख अन्ना ने अनशन खत्म करने के दौरान दिए वहीं आम भारतीयों को अपनी जीवनचर्या में भ्रष्टाचार विरोधी मानसिकता अपनाने के लिए भी तैयार रहना होगा
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