source-बुनियादी बात/संजय सिंह
भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की मुहिम यदि जन लोकपाल विधेयक के रूप में परवान चढ़ी तो इससे अन्य क्षेत्रों के अलावा बुनियादी ढांचा क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। भ्रष्टाचार के मामले में यह क्षेत्र संभवत: सबसे आगे है। इसमें हजारों करोड़ की परियोजनाएं होती हैं और हर साल इनकेसैकड़ों टेंडर जारी किए जाते हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि इन्हें हासिल करने के लिए बड़े पैमाने पर रिश्वत के लेनदेन का खेल चलता है। यह इतना आम है कि इस पर तब तक चर्चा नहीं होती जब तक कि कोई बहुत बड़ा घोटाला न हो जाए। वह भी तब सामने आता है जब कोई पक्ष बुरी तरह पीडि़त होता है। अन्यथा चहुं ओर खामोशी छाई रहती है। देश में सार्वजनिक धन से बनने वाली सड़कें, रेलवे लाइनें, ट्रांसमिशन लाइनें, पावर प्लांट, मोबाइल टावर, बांध, पुल, पानी की टंकियां, स्कूल-कॉलेजों की इमारतें, सरकारी कॉलोनियां, स्टेडियम और खेल परिसर, रिफाइनरी, उर्वरक प्लांट सब कहीं न कहीं इसी लेनदेन की प्रक्रिया से होकर बनते हैं। राष्ट्रीय महत्व की चंद परियोजनाओं को छोड़ दें तो इनमें से ज्यादातर की गुणवत्ता खराब होती है और वे निर्धारित समय से पहले चरमराने लगते हैं। परियोजनाओं के अवार्ड और क्रियान्वयन की इसी भ्रष्ट प्रक्रिया की वजह से हमारे यहां सड़कों का बनना कभी खत्म नहीं होता और रेलवे लाइनों में अक्सर फैक्चर होते रहते हैं। पनबिजली परियोजनाएं पूरी होने का नाम नहीं लेतीं और नई बनी सरकारी इमारतें भी बूढ़ी नजर आती हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में भ्रष्टाचार की शुरुआत विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने और लागत के आकलन से ही हो जाती है। डीपीआर को पहले से ही ऐसे बनाया जाता है ताकि लागत अधिक आए और सारी संभावित पार्टियां टेंडर में भाग न ले सकें। इन्हें चहेती कंपनियों के हिसाब से तैयार किया जाता है। इसके प्री बिडिंग का खेल शुरू होता है जिसमें पसंदीदा कंपनियों का ख्याल रखा जाता है। इसके बाद कांट्रैक्ट लेने की इच्छुक कंपनियों का खेल शुरू होता है। कई मर्तबा टेंडर भरने वाली कंपनियां पहले से तय कर लेती हैं कि टेंडर किसे जीतना है। इसके लिए बाकी कंपनियां पहले टेंडर भरती हैं और अपना कोटेशन तयशुदा विजेता कंपनी को बता देती हैं। वह कंपनी अंत में सबसे ऊंची बोली लगाकर टेंडर प्राप्त कर लेती है। बाद में ऊंची बोली की अतिरिक्त रकम आपस में बांट ली जाती है। जाहिर है कि इससे प्रोजेक्ट ओनर कंपनी को नुकसान होता है। एक अन्य चलन यह है कि टेंडर भरने वाली सभी कंपनियों के बीच एक अलिखित समझौता हो जाता है। इसके तहत ये कंपनियां एक निश्चित राशि जोड़ कर टेंडर भरती हैं। बाद में सफल पार्टी यह अतिरिक्त रकम विफल पार्टियों में बांट देती है। प्री क्वालिफिकेशन बिड के मामलों में परियोजना शुरू करने वाली कंपनी एक इंजीनियर नियुक्त करती है। वह बिड के लिए अपनी पसंदीदा पार्टियों से रिश्वत लेता है और बदले में कई महत्वपूर्ण पार्टियों को बिडिंग प्रक्रिया से बाहर कर देता है। अंतत: सबसे ज्यादा घूस देने वाली पार्टी को ठेका मिल जाता है। मुख्य ठेके के लिए और भी बड़े खेल होते हैं। इसके लिए बाकायदा एजेंट नियुक्त किए जाते हैं जिन्हें विशिष्ट सेवाओं के लिए शुल्क अदा किया जाता है। ये विशिष्ट सेवाएं और कुछ नहीं बल्कि जोड़-तोड़ और रिश्वत देकर काम निकालने की कलाएं होती हैं। इनके लिए एजेंट को भारी-भरकम शुल्क अदा किया जाता है। इसमें वह राशि शामिल होती है जिसे रिश्वत के रूप में आगे की विभिन्न पार्टियों को अदा किया जाना होता है। अंतत: यह रकम परियोजना लागत में जोड़ दी जाती है। तमाम परियोजनाओं की लागत बढ़ने की यह मुख्य वजह है। रिश्वत का लेनदेन परियोजना का डिजाइन तय करने में भी होता है। इसके लिए ठेका लेने की इच्छुक पार्टी आर्किटेक्ट को घूस खिलाती है। बदले में वह ऐसा डिजाइन तैयार करता है जिसकी जरूरतों को पूरा करना सिर्फ घूस खिलाने वाली पार्टी के बस में होता है। इसके बाद ठेकेदार का नंबर आता है। वह लेबर, सामग्री उपकरणों आदि की आवश्यकताओं को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता है। कई मर्तबा परियोजनाओं की लागत का प्रतिस्पर्द्धी आकलन करने के नाम पर भी खेल होता है। परियोजना चलाने वाली कंपनियां अपने पसंदीदा कांट्रैक्टर को ठेका देना चाहती हैं लेकिन निष्पक्ष दिखना चाहती है। इसके लिए वह दो-तीन और कांट्रैक्टर्स से भी कोटेशन मांगती हैं। इसके बाद सबसे कम कोटेशन की राशि पसंदीदा कांट्रैक्टर को बता दी जाती है जिसके बाद वह उससे भी कम बोली लगाकर ठेका हासिल कर लेता है। ठेका हासिल करने के लिए कई बार प्रोजेक्ट ओनर अपनी खराब वित्तीय स्थिति का खुलासा नहीं करते। उन्हें ठेका तो मिल जाता है, लेकिन परियोजना लंबे समय के लिए लटक जाती है। कई प्रोजेक्ट ओनर की ही नीयत में खोट होती है। वे अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए कांट्रैक्टर के बढि़या काम में भी खामियां निकालते हैं और उसकी कुछ रकम रोक लेते हैं। इसकी भरपाई वह कांट्रैक्टर अगले प्रोजेक्ट से करता है। सरकारी परियोजनाओं में फर्जी वर्क सर्टिफिकेट, डिले सर्टिफिकेट जारी करना, परियोजना में ज्यादा समय लगने का झूठा आवेदन करना, वास्तविक से ज्यादा मरम्मत के कार्य दिखाना, डिजाइन में बीच में बदलाव के बहाने अत्यधिक ऊंचे खर्चे दिखाना आदि आम घपले हैं। इस मामले में बैंक भी कम नहीं हैं। बैंकों के अधिकारी रिश्वत लेकर खराब परियोजनाओं को लोन दे देते हैं। दिल्ली में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी निर्माण परियोजनाओं में तकरीबन ये सारी बुराइयां एक साथ देखने को मिलीं। इस भ्रष्टाचार में ऊपर से लेकर नीचे तक सब शामिल थे। पहले सीएजी रिपोर्ट और फिर शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट में यह उजागर हुआ है। दूरसंचार क्षेत्र की परियोजनाओं में भारी भ्रष्टाचार देखने में आया है। इसका उदाहरण 2जी घोटाला है। इसी के चलते देश में 2जी और 3जी सेवाएं शुरू होने में इतना विलंब हुआ है। महाराष्ट्र का आदर्श सोसायटी घोटाला भी इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र से जुड़े भ्रष्टाचार का ही आदर्श केस है। इन घोटालों की गूंज देश भर में सुनाई दी। संसद का बजट सत्र इन्हीं के चलते हंगामों की भेंट चढ़ गया। अब इनकी जांच और पैरवी में जनता का कीमती धन बर्बाद हो रहा है। इस सबसे देश उद्वेलित है। जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे का अनशन इसी जन आक्रोश का प्रस्फुटन था, जिसके आगे सरकार को झुकना पड़ा है और भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप एक सशक्त लोकपाल की नियुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना पड़ा है। इससे आने वाले वक्त में इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र परियोजनाओं के क्रियान्वयन की स्थिति में सुधार की उम्मीद बंधी है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की मुहिम यदि जन लोकपाल विधेयक के रूप में परवान चढ़ी तो इससे अन्य क्षेत्रों के अलावा बुनियादी ढांचा क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। भ्रष्टाचार के मामले में यह क्षेत्र संभवत: सबसे आगे है। इसमें हजारों करोड़ की परियोजनाएं होती हैं और हर साल इनकेसैकड़ों टेंडर जारी किए जाते हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि इन्हें हासिल करने के लिए बड़े पैमाने पर रिश्वत के लेनदेन का खेल चलता है। यह इतना आम है कि इस पर तब तक चर्चा नहीं होती जब तक कि कोई बहुत बड़ा घोटाला न हो जाए। वह भी तब सामने आता है जब कोई पक्ष बुरी तरह पीडि़त होता है। अन्यथा चहुं ओर खामोशी छाई रहती है। देश में सार्वजनिक धन से बनने वाली सड़कें, रेलवे लाइनें, ट्रांसमिशन लाइनें, पावर प्लांट, मोबाइल टावर, बांध, पुल, पानी की टंकियां, स्कूल-कॉलेजों की इमारतें, सरकारी कॉलोनियां, स्टेडियम और खेल परिसर, रिफाइनरी, उर्वरक प्लांट सब कहीं न कहीं इसी लेनदेन की प्रक्रिया से होकर बनते हैं। राष्ट्रीय महत्व की चंद परियोजनाओं को छोड़ दें तो इनमें से ज्यादातर की गुणवत्ता खराब होती है और वे निर्धारित समय से पहले चरमराने लगते हैं। परियोजनाओं के अवार्ड और क्रियान्वयन की इसी भ्रष्ट प्रक्रिया की वजह से हमारे यहां सड़कों का बनना कभी खत्म नहीं होता और रेलवे लाइनों में अक्सर फैक्चर होते रहते हैं। पनबिजली परियोजनाएं पूरी होने का नाम नहीं लेतीं और नई बनी सरकारी इमारतें भी बूढ़ी नजर आती हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में भ्रष्टाचार की शुरुआत विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने और लागत के आकलन से ही हो जाती है। डीपीआर को पहले से ही ऐसे बनाया जाता है ताकि लागत अधिक आए और सारी संभावित पार्टियां टेंडर में भाग न ले सकें। इन्हें चहेती कंपनियों के हिसाब से तैयार किया जाता है। इसके प्री बिडिंग का खेल शुरू होता है जिसमें पसंदीदा कंपनियों का ख्याल रखा जाता है। इसके बाद कांट्रैक्ट लेने की इच्छुक कंपनियों का खेल शुरू होता है। कई मर्तबा टेंडर भरने वाली कंपनियां पहले से तय कर लेती हैं कि टेंडर किसे जीतना है। इसके लिए बाकी कंपनियां पहले टेंडर भरती हैं और अपना कोटेशन तयशुदा विजेता कंपनी को बता देती हैं। वह कंपनी अंत में सबसे ऊंची बोली लगाकर टेंडर प्राप्त कर लेती है। बाद में ऊंची बोली की अतिरिक्त रकम आपस में बांट ली जाती है। जाहिर है कि इससे प्रोजेक्ट ओनर कंपनी को नुकसान होता है। एक अन्य चलन यह है कि टेंडर भरने वाली सभी कंपनियों के बीच एक अलिखित समझौता हो जाता है। इसके तहत ये कंपनियां एक निश्चित राशि जोड़ कर टेंडर भरती हैं। बाद में सफल पार्टी यह अतिरिक्त रकम विफल पार्टियों में बांट देती है। प्री क्वालिफिकेशन बिड के मामलों में परियोजना शुरू करने वाली कंपनी एक इंजीनियर नियुक्त करती है। वह बिड के लिए अपनी पसंदीदा पार्टियों से रिश्वत लेता है और बदले में कई महत्वपूर्ण पार्टियों को बिडिंग प्रक्रिया से बाहर कर देता है। अंतत: सबसे ज्यादा घूस देने वाली पार्टी को ठेका मिल जाता है। मुख्य ठेके के लिए और भी बड़े खेल होते हैं। इसके लिए बाकायदा एजेंट नियुक्त किए जाते हैं जिन्हें विशिष्ट सेवाओं के लिए शुल्क अदा किया जाता है। ये विशिष्ट सेवाएं और कुछ नहीं बल्कि जोड़-तोड़ और रिश्वत देकर काम निकालने की कलाएं होती हैं। इनके लिए एजेंट को भारी-भरकम शुल्क अदा किया जाता है। इसमें वह राशि शामिल होती है जिसे रिश्वत के रूप में आगे की विभिन्न पार्टियों को अदा किया जाना होता है। अंतत: यह रकम परियोजना लागत में जोड़ दी जाती है। तमाम परियोजनाओं की लागत बढ़ने की यह मुख्य वजह है। रिश्वत का लेनदेन परियोजना का डिजाइन तय करने में भी होता है। इसके लिए ठेका लेने की इच्छुक पार्टी आर्किटेक्ट को घूस खिलाती है। बदले में वह ऐसा डिजाइन तैयार करता है जिसकी जरूरतों को पूरा करना सिर्फ घूस खिलाने वाली पार्टी के बस में होता है। इसके बाद ठेकेदार का नंबर आता है। वह लेबर, सामग्री उपकरणों आदि की आवश्यकताओं को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता है। कई मर्तबा परियोजनाओं की लागत का प्रतिस्पर्द्धी आकलन करने के नाम पर भी खेल होता है। परियोजना चलाने वाली कंपनियां अपने पसंदीदा कांट्रैक्टर को ठेका देना चाहती हैं लेकिन निष्पक्ष दिखना चाहती है। इसके लिए वह दो-तीन और कांट्रैक्टर्स से भी कोटेशन मांगती हैं। इसके बाद सबसे कम कोटेशन की राशि पसंदीदा कांट्रैक्टर को बता दी जाती है जिसके बाद वह उससे भी कम बोली लगाकर ठेका हासिल कर लेता है। ठेका हासिल करने के लिए कई बार प्रोजेक्ट ओनर अपनी खराब वित्तीय स्थिति का खुलासा नहीं करते। उन्हें ठेका तो मिल जाता है, लेकिन परियोजना लंबे समय के लिए लटक जाती है। कई प्रोजेक्ट ओनर की ही नीयत में खोट होती है। वे अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए कांट्रैक्टर के बढि़या काम में भी खामियां निकालते हैं और उसकी कुछ रकम रोक लेते हैं। इसकी भरपाई वह कांट्रैक्टर अगले प्रोजेक्ट से करता है। सरकारी परियोजनाओं में फर्जी वर्क सर्टिफिकेट, डिले सर्टिफिकेट जारी करना, परियोजना में ज्यादा समय लगने का झूठा आवेदन करना, वास्तविक से ज्यादा मरम्मत के कार्य दिखाना, डिजाइन में बीच में बदलाव के बहाने अत्यधिक ऊंचे खर्चे दिखाना आदि आम घपले हैं। इस मामले में बैंक भी कम नहीं हैं। बैंकों के अधिकारी रिश्वत लेकर खराब परियोजनाओं को लोन दे देते हैं। दिल्ली में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी निर्माण परियोजनाओं में तकरीबन ये सारी बुराइयां एक साथ देखने को मिलीं। इस भ्रष्टाचार में ऊपर से लेकर नीचे तक सब शामिल थे। पहले सीएजी रिपोर्ट और फिर शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट में यह उजागर हुआ है। दूरसंचार क्षेत्र की परियोजनाओं में भारी भ्रष्टाचार देखने में आया है। इसका उदाहरण 2जी घोटाला है। इसी के चलते देश में 2जी और 3जी सेवाएं शुरू होने में इतना विलंब हुआ है। महाराष्ट्र का आदर्श सोसायटी घोटाला भी इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र से जुड़े भ्रष्टाचार का ही आदर्श केस है। इन घोटालों की गूंज देश भर में सुनाई दी। संसद का बजट सत्र इन्हीं के चलते हंगामों की भेंट चढ़ गया। अब इनकी जांच और पैरवी में जनता का कीमती धन बर्बाद हो रहा है। इस सबसे देश उद्वेलित है। जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे का अनशन इसी जन आक्रोश का प्रस्फुटन था, जिसके आगे सरकार को झुकना पड़ा है और भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप एक सशक्त लोकपाल की नियुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना पड़ा है। इससे आने वाले वक्त में इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र परियोजनाओं के क्रियान्वयन की स्थिति में सुधार की उम्मीद बंधी है।
- नई दिल्ली यह महज संयोग नहीं था कि देश का पूरा उद्योग जगत अन्ना हजारे के अभियान को समर्थन देने के लिए जुट गया। इंडिया इंक को लगता है कि भ्रष्टाचार का दीमक अर्थव्यवस्था को भी चट करने लगा है। अगर हालात नहीं बदले तो यह देश में निवेश के पूरे माहौल का खराब कर सकता है। ऐसा माहौल न सिर्फ शेयर बाजार को मंदी की ओर ढकेल सकता है बल्कि विदेशी निवेशकों को भी दूर कर सकता है। देश के प्रमुख उद्योग चैंबर सीआइआइ के अध्यक्ष हरि एस भारतीय ने दैनिक जागरण से बातचीत में माना कि भ्रष्टाचार तेज आर्थिक विकास दर के रास्ते में एक बड़ी बाधा है। यही वजह है कि पिछले कुछ दिनों से अन्ना हजारे के नेतृत्व में जो अभियान चला उसका सीआइआइ ने पूरा समर्थन किया। सीआइआइ ने प्रमुख उद्योगपति आदि गोदरेज की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित करने का एलान किया है जो भ्रष्टाचार मिटाने में सरकार की मदद करेगा। सीआइआइ और फिक्की ने अन्ना हजारे और केंद्र सरकार के बीच हुए समझौते को एक बड़ी उपलब्धि माना है। फिक्की के महानिदेशक राजीव कुमार ने बताया कि, आप समझ नहीं सकते भ्रष्टाचार ने देश की छवि को कितना नुकसान पहुंचाया है। पिछले कुछ हफ्तों के भीतर फाइनेंशियल टाइम्स और सिंगापुर टाइम्स सहित कई विदेशी अखबारों ने भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार पर विस्तृत रिपोर्ट छापी है। अगर भ्रष्टाचार पर रोक लगती है तो यह देश में निवेश को बढ़ाने में भी काफी मदद करेगा। इस बात को न सिर्फ फिक्की बल्कि देश के 68 फीसदी उद्योगपति मानते हैं। पिछले महीने अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार कंपनी केपीएमजी ने एक सर्वेक्षण के आधार पर बताया कि भ्रष्टाचार भारत की आर्थिक प्रगति को किस तरह प्रभावित कर रहा है। अधिकांश उद्योगपति सोचते हैं कि अगर भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लगी तो नौ फीसदी से ज्यादा की विकास दर को हासिल करना बहुत मुश्किल होगा। 51 फीसदी उद्योगपतियों ने कहा है कि भ्रष्टाचार की वजह से देश में कम निवेश आएगा। यह पूंजी बाजार के प्रदर्शन को भी प्रभावित करता है। जब भी घोटालों की खबर सामने आती है, शेयर बाजार में गिरावट देखी जा सकती है। इससे आर्थिक विकास दर भी घट सकती है। केपीएमजी ने कहा है कि भारत के एक विकासशील देश से विकसित देश बनने के रास्ते में भ्रष्टाचार ही सबसे बड़ी रुकावट है। वर्ष 2010-11 में इंडोनेशिया सहित अन्य विकासशील देशों के मुकाबले भारत में कम विदेशी निवेश आने के लिए भ्रष्टाचार को ही प्रमुख वजह माना गया है।
No comments:
Post a Comment