अन्ना हजारे के अनशन और भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल विधेयक के औचित्य पर बीते दिनों भले ही कई सवाल उठे हों, लेकिन लोकसेवकों के भ्रष्टाचार से मुकाबले की मौजूदा व्यवस्था की खस्ताहाल तस्वीर हर सवाल पर विराम लगाने को काफी है। हालत यह है कि सीवीसी और सीबीआइ के पास आने वाले भ्रष्टाचार की ज्यादातर शिकायतें बगैर किसी मुकाम पर पहंुचे ही दम तोड़ जाती हैं। आंकड़ों की खिड़की से देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाली सीबीआइ और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) जैसी दो अगुवा संस्थाएं बेहद कमजोर हाल नजर आती हैं। स्टाफ की कमी और शिकायतों के निपटारे की ढीली व्यवस्था का शिकार दोनों ही हैं। 2010 के अंत में अदालत के पास लटके सीबीआइ मामलों की संख्या साढ़े नौ हजार से ज्यादा थी। जिनमें दो हजार से ज्यादा मामले तो दस साल से अधिक वक्त से लटके हैं। इस फेहरिस्त में 639 मामले तो ऐसे हैं जिनका फैसला 15 से 20 सालों में भी नहीं हो सका है। शोध संस्था पीआरएस इंडिया के मुताबिक लोकसेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार मामलों में कार्रवाई के लिए संबंधित सरकार की इजाजत जरूरी होती है और यह व्यवस्था ईमानदार अधिकारियों को प्रताड़ना से बचाती भी है, लेकिन अनुमति देने में देरी से इस प्रावधान के दुरुपयोग संभव है। आंकड़े बताते हैं कि 2010 के अंत तक केंद्र सरकार ने इस बाबत आई 236 अर्जियों का जवाब तक नहीं दिया था और इसमें से साठ फीसदी मामले तीन महीने से अधिक समय से अनुमति का इंतजार कर रहे थे। इसके अलावा केवल छह फीसदी मामले में ही मुकदमा दर्ज किया गया। बल्कि 94 प्रतिशत मामलों में विभागीय दंड से मामला निपटा दिया गया। भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में कार्रवाई को लेकर लोगों के बीच केंद्रीय सतर्कता आयोग जैसी संस्था की साख को भी आंकड़े आइना दिखाते हैं। सुप्रीम कोर्ट से 2004 में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की शिकायत पर कार्रवाई का अधिकार मिलने के बावजूद सीवीसी के पास पांच साल में 1731 शिकायतें ही आई। यानी औसतन साल में केवल 346 शिकायतें। हालांकि सरकार ने 2010 में लोक हित खुलासे के लिए एक कानून पेश किया है जो इन दिनों संसदीय समिति के पास है।
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